December 13, 2024

दवानल का खलनायक चीड़:बलबीर राणा ‘अडिग’

“नि होंदी  पिरुळै डांग, 
नि लगदी यु निर्भागी बणाग”
चीड़ पर नीड़ नहीं  हुआ करते क्योंकि प्रकृति ने अपने आचरण को समझने के लिए इंशानों से ज्यादा समझ  विहगों को दी है उन्हें पता होता है कि चीड के बृक्ष पर हमारे नीड़ों को  संभालने का न सऊर हैं न सामर्थ्य  और ना ही समझ। बसंत के बाद इसकी छिछेली पत्तियां भी इसे छोड़कर कुछ दिनों के लिए इसको ठंगरा (ठूंठ) बना देता है इसलिए कोई भी नभचर चीड पर  अपना घौंसला नहीं बनाता। क्योंकि उन जातकों को भी पता है एक दिन यह नग्न हो जायेगा और मेरे घर को भी  नग्न कर देगा। और पता नहीं  किस दिशा और देश से क्रूर बाज के पंजे मेरे पौथुलों (चूजों) को दबोच लेगा। अगर बाज की निगाह से बच भी गए तो कुछ दिन बाद इसकी झड़ी हुई पत्तियां क्रुद्ध होकर दवानल के रूप में मेरी संतति को भष्म कर देगा।
  यह दंश केवल पक्षियों का ही नहीं उन तमाम  पशुओं का भी है जिनका अपना भव्य संसार इन अपीड़ चीड़ जंगलों में बसता है। मध्य हिमालय के उत्तराखंड में करीब 16 फीसदी भूमि पर अकेले चीड़ के जंगल हैं, वन वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तराखंड में चीड़ का आविर्भाव अनादि काल से रहा है, लेकिन पर्यावरणविदों का एक मत है कि हिमालय के इस भू भाग पर शंकुकार वन तो थे  लेकिन आधुनिक चीड नहीं। और उत्तराखंड का लोकमत कहता है कि आधुनिक चीड़ की उत्पत्ति काल औपनिवेश काल है, अर्थात इसे १६वीं शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा लाया गया । अंग्रेजों ने अपने लाभ के लिए मध्य हिमालय के क्षेत्रों का गहन अध्यन करके इसे चीड़ के लिए उपयुक्त पाकर यहाँ व्यपाक रूप से चीड़ को उपजाया। उन्होने मध्य हिमालय की इन सुंदर वादियों  को अपने एशो आराम की गाह बनाने के साथ आय के उत्तम साधन के रूप में देखा। यहाँ की जैवविविधता को देखते हुए अंग्रेज यूरोप और अफ्रीका से उन्नत किश्म के चीड़ (पाईन लॉंजिफोलिया, पाईन एक्सेल्सा, तथा पाईन खास्या) को यहाँ लाये और कम अवधि में मध्य हिमालय के आठ सौ मीटर से 1800 मीटर की ऊंचाई वाले भू भागों में इसे पनपा कर काफी लाभ कमाया। इन चीड़ों के बीज खाने में स्वदिष्ट होते हैं और यह बृक्ष यूकेलिप्टिस की तरह कम समय में फलने फूलने वाला और फायदे वाला होता हैं। औपनिवेश काल में पहाड़ की आर्थिकी को मजबूत करने के नाम व तुरन्त लाभ कमाने के उद्देश्य से लाया गया चीड़ आज पहाड़ की आर्थिकी ही नहीं  यहाँ की पारिस्थितिकी के लिये महाविनाशक होता जा रहा है । चीड़ के जंगलों में लगने वाली आग प्रतिवर्ष जहाँ करोड़ों की वन सम्पदा नष्ट कर रही है वहीं इससे पहाड़ के पर्यावरण में भी आमूलचूल परिवर्तन हो रहे हैं जिसमें प्राकृतिक जलस्रोतों का सूखना, आग से तापमान के बढ़ने से  ग्लेसियरों का पिघलना माना जा रहा है।
उत्तराखंड के जानेमाने पर्यावरणविद मैती आंदोलन के प्रेणता श्री कल्याण सिंह रावत जी का कहना है कि अंग्रेज इतने शातिर और चालाक थे कि जब वे चीड़ की इस प्रजाति के बीज यहां लाये तो उनको ये शक था कि ये अनपढ़ गरीब इनके बीज खा देंगे इस लिए उन्होंने चीड़ के बीज के पैकेटों के बाहर से लिख दिया कि इसमें मानव मूत्र मिला है, जिससे ये लोग इन बीजों को नहीं खायेंगे । अंग्रेजों ने युद्ध स्तर पर नर्सरियां बनाकर वन पंचायतों के अधीन चीड़ के जंगलों को फैलाया। कहते हैं चीज एक और लाभ अनेक हो तो कौन व्यक्ति उससे लाभ नहीं लेना चाहेगा इसी तरह चीड भी अनेक आर्थिक लाभ वाला पेड़ है। चीड़ तीखी ढलानों,चट्टानी इलाके,कम मिटटी की परत वाले जगहों एवं आम तौर पर रुखी जगहों जहाँ तेज़ और सीधी धूप आती हो ऐसी जगहों  पर खूब फलता फूलता है। आर्थिक लिहाज से चीड एक इमारती लकड़ी होने के कारण मकान, फर्नीचर आदि घरेलु कामों और बड़े उद्योगों के लिए वहुउपयोगी होता हैं। ब्रिटिश काल में भारत में रेल का पदार्पण हुआ और रेल की पटरियों के लिए चीड़ का बहुत योगदान रहा। चीड़ की कुछ प्रजातियों की लकड़ी काग़ज़ बनाने के काम भी आती है, साथ ही चीड के लीसे से तारपीन का तेल, पेन्ट, वार्निश आदि अधिक आर्थिक लाभ वाली चीजों का निर्माण किया जाता है ।
अब सवाल ये है कि इतने काम के वृक्ष को क्यों पहाड़ों में बनाग्नि के लिए खलनायक के रूप में खड़ा किया जा रहा है? जैसे कि उपरोक्त उधृत है कि अंग्रेजी हुकूमत के दौर में व्यावसायिक रूप से चीड़ का बड़े पैमाने पर प्लांटेशन हुआ और देश आजादी के बाद काफी समय तक यह वदस्तूर चलता रहा । पहले प्लांटेशन के साथ-साथ चीड़ को टिंबर के लिए काटा भी जाता था, लेकिन 1981 के बाद एक हजार मीटर ऊँचाई के बाद हर तरह के पेड़ों के काटने पर रोक लगाई गई और आचरण के अनुसार चीड़ ने इसका फायदा उठाया। आज स्थिति यह हो गयी कि यह कुंलैं (चीड़) बांज, बुरांस और देवदार जैसे मिश्रित वनस्पति जंगलों में अपनी पेठ बना चुका है। मेरे देखा देखि पिछले चालीस सालों में मेरे अपने गाँव मटई बैरासकुण्ड चमोली में जिस ऊँचाई पर कभी केवल बांज बुरांस हुआ करता था आज वहाँ कम्प्लीट चीड़ उग गया है। कांग्रेस और लालटेन घास की तरह धीरे-धीरे चीड़ ने भी बाकी प्रजाति की वनस्पती को नष्ट कर उनकी जगह ले ली है । दूसरा चीड़ का एक अवगुण यह है कि यह अपने नीचे किसी दूसरी प्रजाति के पेड़ व वनस्पती को पनपने नहीं देता । चीड़ को न काटने की वजह इसने चौड़ी पत्ती के जंगलों की जगह छीननी शुरू कर दी, नतीजन आने वाले भविष्य में यह पहाड़ का सोना कहे जाने वाले बांज के अस्तित्व के लिए खतरा बन चुका है इसमें कोई दो राय नहीं है।
अब बात करते हैं कि चीड़ को ही क्यों उत्तराखंड में बंणाग के लिए खलनायक माना जा रहा है जबकि ईमानदारी से देखा जाय तो आग मैन मेड ही होती है तो फिर चीड क्यों दोषी? लेकिन मेरा मानना है चीड इस लिए दोषी है, क्योंकि कि यह आग में घी का काम करता है जिससे एक छोटी चिंगारी भयानक दवानल बन जाती है। अब बौद्धिक वर्ग कहेगा यार वह तो पेड़ है वह कैसे जिम्मेवार है? लेकिन असली झगड़े की जड़ यही है। “नि होन्दू  पिरुळै डांग, नि लगदी यू निर्भागी बणाग ” (नहीं इतनी ज्यादा मात्र में चीड की पत्तियां का ढेर होता ना ही इतनी भंयकर बनाग्नि लगती)।
 भारतीय वन संस्थान के एक अध्ययन के अनुसार एक हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैले चीड़ के जंगल से साल भर में छ: टन तक पिरुल गिरता है। आग लगने की असलियत यह है कि कितने ही कारण हों मनुष्यों के इन्वोल्बमेन्ट की लेकिन आग को भड़कने व फैलाने में पिरुल ही अहम भूमिका निभाता है।  अपवाद कि कुछेक कुदरती घटनाओं को छोड़कर आग मनुष्यों द्वारा ही लगाई जाती है चाहे वह जंगल में गुजरते चरवाहों की लापरवाही हो, सड़क चलते आदमी की हो, बच्चों की शरारत हो या ग्रामिणो द्वारा अच्छी घास उगने की एवज में लगाई गई आग, या बन विभाग।  आग अनजाने में लगी हो या जानबूझकर इसके लिए मनुष्य ही माध्यम होता है जानवरों के खुरों से आग लगने से रही। फिर सवाल घूमफिर के आता है कि फिर चीड़ कैसे गुनाहगार हुआ तो इस सवाल के जबाब में कुछ जमीनी तथ्य इस प्रकार हैं:-
पहला चीड़ अपने नीचे अन्य किसी वनस्पति को नहीं पनपने देता है चीड़ का जंगल अकेला चीड़ का  होता है अगर इसके नीचे अन्य वनस्पतियां उगती तो छोटी चिंगारी दावानल नहीं बन सकती।
दूसरा चीड़ की पत्तियां (पिरुल) अन्य पतझड़ वाले पेड़ों की पत्तियों की तरह जल्दी सड़ती नहीं है और इतनी अधिक मात्रा में जमा होती हैं कि जिससे जमीन के ऊपर एक गहरा आवरण बन जाता है जिससे घास या दूसरी वनस्पति नहीं उगती हरियाली बिना आग का फैलना आसान होता है।
तीसरा सड़कों पर गिरे पिरुल पर गाड़ियों के चलने से सड़क के किनारे पिरुल का बुरादा जमा हो जाता है जिसमें मौजूद तेल की मात्रा इसे किसी बारूद सरीखा बना देता है, जिस कारण गाड़ी के टायर के घर्षण से भी यह सुलग उठता है।
चौथा इससे निकलने वाला लीसा ज्वलनशील होता है जो छोटी आग के लिए बूस्टर का काम करता है और अधिकतर चीड के पेड़ तेलयुक्त होते हैं जिसे स्थानीय भाषा में छिला या छिल्कू कहा जाता है ऐसे पेड़ अगर आग पकड़ते हैं तो लम्बे समय तक जलते रहते हैं और हवा के कारण इसके फिलिंग दूर के जंगल में भी आग लगने का कारण बन जाता है ।
पांचवाँ चीड के जंगल बहुत घने होते हैं ज्यादा घने जंगलों के बीच इनकी मोटाई कम और लम्बाई ज्यादा होती है फिर लिसा निकालने के लिए पेड़ के निचे तने पर गहरी छिलाई की होती है जिससे पेड़ कमजोर पड़ जता है तेज हवा और तूफ़ान में ऐसे पतले और कमजोर पेड़ बहुत संख्या में टूट जाते हैं आग लगने के बाद ये टूटे हुए पेड़ भयानक दनावल का कारण बनता है ।
अब तथ्य और कारण जितने भी हों लेकिन गुनाहगार के साथ समाधान केवल और केवल मनुष्य है। जंगलों के वे निरीह प्राणी या तो कहीं और भाग सकते हैं या अपनी जान गंवा सकते हैं । समाधान के लिए मेरा मनना है लाख कठोर नियम और जतन के बाद भी इन्शानो की मिस्टेक को नाकारा नहीं जा सकता इस लिए उत्तम यही है की पहाड़ों के असली स्वरूप को बचाना है तो चीड़ उन्मूलन ही लॉन्ग टर्म विकल्प है। इसके असर के रूप में अभी नहीं लेकिन आने वाले दशकों में आने वाली पीड़ी साधुवाद देगी। 
पौड़ी जिले के बीरोंखाल ब्लाक स्थित ग्राम नंदाखेत निवासी सेवानिवृत सैनिक श्री रमेश बौड़ाई  जी पिछले बीस वर्षों से अकेले चीड़मुक्त अभियान पर लगे हैं और मुझे लगता है अब समय आ गया है कि मध्य हिमालय के इस भूखण्ड को बचाना है तो सबको भाई रमेश बौड़ाई जी के साथ खड़े होकर यह लड़ाई लड़नी होगी। 
पर्यावरणविद कल्याण सिंह रावत “मैती” जी का कहना है अब वे चीड़ मुक्त उत्तराखण्ड के लिए बड़ा जन आन्दोलन और आमरण अनशन करने वाले हैं । प्रसिद्ध पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने कभी कहा था जब तक आप उत्तराखंड के लोगों को उनका वही जंगल वापस नहीं लौटाएंगे तब तक आग को भी नहीं रोक पाएंगे। आज भी उत्तराखंड में जहाँ मिश्रित वन (बांज, बुरांस और काफल जैसी प्रजातियों वाले जंगल) हैं उनमें आग की घटनाएं ना के बराबर होती है और होती भी है तो फ़ैल नहीं पाती क्योंकि जमीन में बहुआयात में अन्य अन्य वनस्पतियाँ आग फैलने नहीं देती । बाकी सरकार बनाग्नि मर्दन हेतु जो भी नीतियाँ बनाए आधुनिकरण सयंत्रों और तकनिकी का इस्तेमाल करे लेकिन तत्कालिक  आर्थिक लाभ हेतु दूरगामी विनाशक परिणामों पर अब कार्यान्वयन जरुरी है। मेरा तो स्पष्ट मत है कि अब चीड़ उन्मूलन के लिये किसी सरकार के फरमान या नीति का इन्तजार किये बिना उत्तराखण्ड  के जन समुदाय को श्री रमेश बौड़ाई और श्री कल्याण सिंह रावत “मैती” जी के साथ  जन आन्दोलन में शामिल होकर औपनिवेशिक प्रतीक वृक्ष, चीड की समाप्ति और हिमालयी मूल के वनों के हक-हकूक के लिये लड़ना पड़ेगा।
आलेख : बलबीर राणा ‘अडिग’
मटई वैरासकुण्ड चमोली 
https://youtu.be/P_tba09UP6A
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