आज समग्र विकास के युग में हमारी कुछेक मातृशक्ति को खुद की पहचान का अकाल क्यों महसूस होने लगा
Today, in the era of holistic development, why did some of our mother power start feeling the famine of their own identity?
हमारी सनातन प्रणाली में पितृसत्तामक पहचान का बिल्कुल भी यह अर्थ नहीं कि हमारी मनीषा ने मातृशक्ति को कहीं भी कम आँका हो या उनका स्थान कमतर रखा हो। सर्वविदित और शास्त्र सम्मत है कि यत्र सर्वत्र हमारे शीर्ष पर मातृशक्ति ही विराजमान रही है, और जब तक पृथवी पर सनातन है तब तक रहेगी। हमारी मनीषा नारी तू नारायणी वाली है, यत्र नारी पूज्यन्ते तत्र रम्यन्ते देवता, स्त्री तत्व हेतु आदर्श वाक्य है।
सनातन नारी को अधिष्ठात्री जगत जननी, धरती माता, शक्ति स्वरूपा , लक्ष्मी स्वरूपा, विद्या स्वरूपा आदि आदि, जीवन के अभिन्न अंगों के शीर्षस्थ रूपों में मानता है और पूजता है। अगर कहूँ तो सनातन जीवन के केंद्र बिंदु में नारी ही विराजमान है यानि नारी महातम्य ही सनातन मनीषा का सार है।
सनातन में नारी सदैव अग्रणीय रही, कामों में भी और नामों में भी, देखो लक्ष्मी-नारायण, राधा-कृष्ण, सियाराम आदि देवनाम उच्चारणों में नारी प्रथमम् देवकाल से प्रचलन में है। इसी आदर्श के परणीत हम आज भी घर की नाम पट्टीका पर पहले घर की मालकिन और फिर मालिक का नाम लिखते हैं। जैसे सरोजनी देवी राणा एवं बलबीर सिंह राणा। इसी नारी प्रथमम् के आदर्श के मध्यनजर हम शादी कार्ड या अन्य निमंत्रण पत्रों में विनिती में पहले श्रीमती और फिर श्रीमान जी का नाम लिखते हैं।
सनातन में नारी गृहलक्ष्मी मानी जाती है और मानी क्या जाती है ही, बिना गृहलक्ष्मी के कोई घर शुद्ध और पूर्ण नहीं माना जाता। नारी घर की शोभा है नारी बिन घर सून तब घर एक मकान मात्र ढांचा रह जाता है। इसलिए नारी के बिना कोई देव पूजा या देवयात्रा पूर्ण नहीं मानी जाती है।
नारी हमारे लिए सर्वत्र पुज्यनीय है ना कि इस्लाम की तरह भोग की वस्तु और इसाईयत की तरह नुमाईस की चीज।
लेकिन, लेकिन पाश्चात्य की देखा देखी, काले अंग्रेजों एवं बामियों के भ्रम में भ्रमित हमारी कुछेक आधुनिक मातृशक्ति को उपरोक्त सर्वोच्च मान सम्मान एवं पुज्यनीयता पता नहीं क्यों नगण्य लगने लगी और देखा देखी स्वयं के वर्चस्व ही कहूँगा के लिए अपनी पहचान नाम के साथ दोहरी जाति का प्रयोग करनी लगी, जैसे कमला रावत बिष्ट, अर्चना गौड़ ध्यानी, रामेश्वरी रौथाण बागड़ी आदि आदि टाईप। यानी मूल जाती के आगे या पीछे मातृपक्षीय जाती लिखने का चलन। इतनी समृद्ध और पुण्य परम्परा के होते हुए यह चलन समझ से परे है!
सवाल ये है कि आज इस समग्र विकास के युग में हमारी कुछेक मातृशक्ति को खुद की पहचान का अकाल क्यों महसूस होने लगा ? या, मैं पीछे ना छूट जाऊँ की हौड़ का हिस्सा बनना जरूरी हो गया ! जैसे गाँवों में सामुहिक घास के लिए बंद जंगल खुलने पर पकड़ने हथियाने की हौड़ लगी रहती है कि कहीं मैं पीछे ना रह जाऊँ और मेरे हिस्से का छूट ना जाए।
क्या मातृशक्ति सोशियल मिडिया की चमकती प्रोफाइल और दमकती दिखावट में अपनी पहचान को अधूरी नहीं कर रही हैं ? कुसुम नेगी रावत, मैत की या सोरास की ? पता नि बल।
या खुद को अग्रिम व आधुनिक दिखाने की हौड़ में हमारी नारी शक्ति अपने दाम्पत्य मुल्यों को कम आंकने की मानसिकता पाल रही है ? यानी सेल्फ सुपरमेसी (स्वयं की श्रेष्ठता) की भावना। जबकि पति पत्नी में कोई सेल्फ सुपरमेसी का सवाल ही नहीं उठता ये गृहस्थ रूपी साईकिल के दो पहिए हैं बराबर चलना बराबर घिसना। यानी संविधान में पति पत्नी को बराबर का दर्जा दिया है तो जाति में मैं क्यों पीछे रहूँ? नहीं तो संवेधानिक व धार्मिक विधान द्वारा मिली जाति पहचान के बाद ये भी और वो भी क्यों?
अगर ऐसा ही है तो अपनी संवेधानिक पहचान आई डी फ्रूफ़ में ऐसा ही डबल सर नेम क्यों नहीं लिखा जाता? नहीं तो यह केवल लोक दिखावान और सेखी से ज्यादा कुछ नहीं है।
जबकि सच्चाई ये है कि कर्म के आगे जाति महत्व नहीं रखती। पूरे विश्व में पर्यावरण संवर्धन की अलख जगाने वाली चिपको प्रेणता *गौरा देवी* को लोग गौरा देवी नाम से ही जानते हैं ना कि किसी फर्स्वाण या रावत से। बसंती बिष्ट, माधुरी बर्तवाल जैसी हस्ती हमारी लोक की सांस्कृतिक पहचान अपने पति जाति के नाम के साथ हमारे लोक का प्रतिनिधित्व कर रही हैं।
विचारणीय बात ये भी है कि हमारे देश में मराठी और दक्षिण भारतीय समाजों में बेटे का नाम पिता और दादा के नाम के साथ जोड़कर पूर्ण बनता है। और स्त्री का पति के नाम के साथ। साथ ही कई मातृशक्तियां खुद को पति नाम के साथ जोड़ना अच्छा मानती हैं, लेकिन मातृपक्ष की जाति का चलन वहाँ भी नहीं दिखाई देता।
शास्त्रों की बात की जाए तो पितृकार्य हेतु किए जाने वाले पिंडदान, तर्पण एवं पितृकूड़ा जैसे पितृ मोक्षीय कर्मकांड में भी पितृसत्तामक पक्ष द्वारा ही किए जाने का विधान है, अगर किसी की अपनी औलाद नहीं होती तो स्वोरा-भारों से यह कर्मकांड करवाया जाता हैं ना कि भाई (स्त्री के) से, दिवंगत स्त्री का भाईयों द्वारा पिंडदान या तर्पण के मामले ना के बराबर सज्ञान में आए हैं।
अगला सवाल कि क्या पितृसत्तामकता पहचान से *नारी तू नारायणी* का भाव कम हुआ है ? या उस प्रथम पुज्यनीय स्थान में कमी आई है ? सायद नहीं। अगर आई है तो अपने को अति उदार कहने वाले वर्ग में आई है जिन्होंने विदेशी पोषित किताबों से अकादमिक डिग्री हासिल करके ऊँची नौकरी पाई और बड़े पैसों में नारी को नुमाईस और उपभोग के रूप में आगे रखा।
अगर इस अभिजात वर्ग ने भारतीय मनीषा की गहराई जानी होती, पारवारिक मुल्यों की संवेदना आंकी होती तो आज लिव इन रिलेशनशिप जैसे नराधमीय और गैर जिम्मेदारना चलन कानूनन वैध नहीं हो पाता। खुद को आधुनिक कहने वाले इस वर्ग ने भारत और भारतीयता को पढ़ा ही नहीं और जब पढ़ा ही नहीं तो जानने समझने का प्रश्न ही नहीं उठता। यही चाहता था मैकाले। जो अपने मिशन में सौ फीसदी सफल भी हुआ।
आज इस अति आधुनिक, अति उन्नत, स्वजनित, स्ववर्चस्व, खुलेपन एवं स्व स्वतंत्रता वाली मानसिकता का ही परिणाम है कि हम परिणय बन्धन में बंध तो गए पर परिणय के वेदमन्त्रों को परे रख एक दूसरे को गोपनियता के दायरे में रखने लगे। आज मोबाईल इंटरनेट तकनिकी के इस वृहद संचार के युग में स्व गोपनियता बाहरी लोगों के लिए बहुत जरूरी है लेकिन यह दाम्पत्य में भी एक स्क्रीन के रूप में परिलक्षित हो रहा है। नहीं तो पति पत्नी का एक दूसरे के लिए अपने मोबाईलों पर स्क्रीन लॉक पैटर्न या पासवर्ड लगाना कितना तर्क संगत है ? बाहरी व्यक्ति के लिए लॉजिक है, पर जिसको जीवन संगिनी, जीवन साथी माना है, चुना है, जो एक दूजे का सर्वेसर्वा, जीवन की अंतिम सांस तक साथ निभाने के वचन से वचबद्ध है तो उसके साथ किस बात की गोपनीयता ? जीवन में यही एक रिस्ता तो बेपर्दा निर्वस्त्र है बाकी सब पर्दे के रिश्ते हैं यहाँ तक औलाद भी। तो मोबाईल पर ताला क्यों? क्या यह चलन एक दूजे के प्रेम को संशय या शक में नहीं डाल रहा है?
खैर मेरे इस सवाल को आप अतार्किक बचकाना मान सकते हैं यह आपकी विवेचना है । लेकिन पति पत्नी के अप्रीतम प्रेम की परिभाषा में आम समाज से यह सवाल करना मैं यथोचित समझता हूँ कि *आज दाम्पत्य की अटूट डोर को कमजोर करने का यह भी एक कारक हो सकता है*।
जब कोई राष्ट्र गुलाम होता तो मिट्टी में गड़ी उसकी जड़ें तक गुलाम हो जाती और उन जड़ों से उठा पेड़ वर्णसंकर रूप में खड़ा रहता है और *आज भाषा और शिक्षा के रूप में हम वर्णसंकर रूप में ही खड़े हैं* नहीं तो कंप्यूटर प्रणाली हेतु विश्व की सबसे उपयुक्त भाषा संस्कृत को शामिल नहीं करा पाते? जापान, रूस, फ़्रांस, चाईना इत्यादि देशों में कम्प्यूटर बाईनरी भाषा उनकी अपनी राष्ट्र भाषा में है ना कि इंग्लिश। उनके सोशियल मिडिया प्लेटफॉर्म अपनी राष्ट्रभाषा में है ना कि इंग्लिश। और एक हम हैं कि अपने को पनपने नहीं देते। हम आज इतने परजीवी हो गए कि सोशियल मिडिया X के जैसी स्वदेशी koo प्लेटफॉर्म को हमने बंद होने को मजबूर कर दिया ।
बाकी मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा के बारे में क्या ही कहें! देश आजाद हुए आठ दशक होने को है, देश युवा प्रोढ़ता से अनुभवी बृद्धता की और बढ़ गया है लेकिन आज भी हम अपनी राष्ट्रभाषा को पूर्ण रूप से खड़ा नहीं कर पाए। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या हो सकता। इस पाश्चात्य की जड़ें भारत में इतनी गहरी चली गई कि भविष्य में आर्यों वाला विश्व गुरू सनातन फिर अपने वैभव में खड़ा होगा मुझे लगता नहीं।
तमाम वेदीय वैज्ञानिकता, प्रमाण एवं खगोलीय जानकार होने के वाबजूद भी हम खोखले रहे। हमारी राजनीति इच्छाशक्ति इतनी कमजोर थी कि अपनी तमाम प्रतिभा का पलायन सिलिकन वैली जैसे अन्य विदेशी शहरों में कर गए।
कितने लाटे थे हम कि शोध और जानकारी हमारी थी और पैटर्न बना अविष्कारक बना गया पश्चिम वाला। अब उन्हीं के चश्में से हम खुद को पिछड़े देखते हैं। पश्चिक की भाषा में खुद को संपेरों और तांत्रिकों मुल्क मानने लगे हैं। गुलामी से उपजी कमजोरी का ही कारण था कि नालंदा जैसे अनेक वृहद व्रह्मांडीय ज्ञानकोश युक्त पुस्तकालयों को जलने से बचाने में हम असक्षम रहे।
फिर आलेख के मूल विषय पर वापस आता हूँ कि मातृशक्ति द्वारा नाम के साथ दोहरी जाति रखने के रिवाज़ पर कि यह केवल और केवल देखा-देखी के साथ एक अंधी दौड़ मात्र है । और यह उस फैसन की तरह चल पड़ा जैसे छोटे होते अंग वस्त्रों की हौड़ में जिस्म नुमाईसी आम बात हो गई।
अडिग की इस बाबत कोई दुर्भावना नहीं है ना ही उन मातृशक्तियों की अह्वेलना करना जो अति उदार और फ़्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन के नाम पर आतार्किक बदलाव की हवा के साथ बही जा रही है। इस समझ और मानसिकता हेतु *मेरे केवल प्रश्न मात्र हैं* और जबाब आप सभी पाठकों और आम समाज से।
ऐसे असंगत चलन व व्यवहार जैसे मुद्दों पर सारगर्भित विमर्श की आज सख्त आवश्यकता है, और हर सनातनी परिवार को अपने परिवार से ऐसे उच्छश्रृंखल आचरण को सुधारने हेतु बदलाव लाने की जरुरत है। लेकिन विमर्श में लोकतंत्रीय भाषानुरूप अभिव्यक्ति की आजादी, स्व स्वाभिमान, कैसे भी कहीं भी जीने की आजादी जैसे कानूनी टर्म्स सामने आए तो ऐसे में मान्यताओं की कोई गुंजाईस नहीं रह जाती। ना ही मानव समाज की नीव संस्कृति, संस्कार, परम्पराओं एवं रीति रिवाजों का कोई महत्व। फिर आखिर में असहाय वाक्य से चित बुझाना होता है कि *करा बाबू जन बि कन तुमुन, अपणी गंगा उन्द बगा चै उब*।
एक प्रश्न गौण है कि समाज के परिवर्तन को स्वीकार और अंगीकार करना चाहिए लेकिन किस हद तक? ऐसा नहीं कि उदारवादिता में हम गरीब या अनपढ़ बाप को बाप बोलने में शर्म महसूस करने लगे यानि खुद को सनातनी बोलने में अपमानित समझने लगे।
यह हमारे धर्म के लचीलेपन की कमजोरी है या और कुछ, पता नहीं, लेकिन हमारा समाज परिवर्तन के नाम पर अंधी दौड़, दौड़ रहा है यह सच्चाई हमें स्वीकार करनी होगी। नहीं तो माँ बाप अपने धर्म-कर्म, परम्परा एवं रीति-रिवाज में हैं और बच्चों को आधुनीकरण एवं फैसन के नाम पर अवांछनीय छूट क्यों? उत्तम शिक्षा के नाम पर मात्र अंग्रेजी पर गर्व क्यों? जबकि अंग्रेजी मात्र भाषा है ज्ञान नहीं।
आज यह उदारवादिता की अति सनातन की जड़ो में मठ्ठा डालने के सिवा कुछ नहीं कर रहा है। सवाल ये भी है कि उदारता के नाम हो रहे व्यभिचार पर प्रबल आवाज़ कब उठेगी? हमारा चिंतक वर्ग कब आँख मूदन से जागेगा? बौद्धिक वर्ग कब अपना असहाय हथियार फेंककर सनातनी शास्त्र तर्कों के जरिये भ्रमित लोगों को भ्रम से निकालेगा ?
अंत में मातृशक्ति द्वारा अपनी जाति पहचान हेतु दोहरेपन पर अपना अनुभव साझा करना चाहूंगा कि मैं भारत के मातृशत्तामक राज्य मेघालय के खासी समाज से अच्छी तरह मिला हूँ और अच्छे पढ़े लिखे पुरुषों से वार्ता कर चुका हूँ कि क्या आपको नहीं लगता कि भारत के अन्य हिस्सों की तरह आपकी पहचान भी आपके जनक पिता की जाति से हो। लेकिन उन्होने अपनी संस्कृति, रीति रिवाजों और परम्परा को सर्वोच्च रखा कि उन्हें कोई दिक्कत नहीं और उन्हें कभी नहीं लगा कि वे अपनी पत्नी की पहचान से जाने जाते हैं। और अपना घर छोड़ सदैव पत्नी घर के हो जाते हैं। वे आदिवासी सही लेकिन संस्कार संस्कृति पोषक में हमसे बहुत वेहतर हैं।
नोट : आलेख में संयोगबस किसी बहन, बेटी का हू-ब-हू नाम आया हो तो क्षमा प्रार्थी हूँ।