रहस्यमयी झील की अनसुलझी पहेली
नमिता बिष्ट
दुनिया में ऐसी कई चीजें हैं जिनके बारे में विज्ञान भी पता नहीं लगा पाया है। ऐसी ही एक अनसुलझी पहेली उत्तराखण्ड के चमोली में स्थित रुपकुण्ड झील है। इस झील में समय समय पर बड़ी संख्या में कंकाल पाए जाने की घटनाओं ने वैज्ञानिकों को हैरत में डाला है। झील के आस पास यहां-वहां बिखरे कंकालों के वजह से इसे ‘कंकाल झील’ या ‘रहस्यमयी झील’ भी कहा जाने लगा है। समुद्र तल से लगभग 5,029 मीटर की ऊंचाई पर यह झील त्रिशूली शिखर के बीच में मौजूद है। इस झील के चारों ओर ग्लेशियर और बर्फ से ढके पहाड़ हैं। यह कंकाल झील अपने किनारे पाए गए 500 से भी ज्यादा कंकालों की वजह से काफी मशहूर है। इस झील के पास पाए जाने वाले सैकड़ों कंकाल जहां पर्यटकों को डराते हैं तो वहीं उन्हें खूब लुभाते भी हैं। जिस वजह से यहां ट्रैकिंग करने और घूमने आने वाले लोगों की तादाद में कमी नहीं आती है। रूपकुंड में 12 साल में एक बार होने वाली नंदा देवी राज जात यात्रा में भाग लेने के लिए श्रद्धालु दूर-दूर से यहां देवी की पूजा करने आते हैं।
1942 में ब्रिटिश फॉरेस्ट गार्ड ने देखा था सबसे पहले
इन कंकालों को सबसे पहले साल 1942 में ब्रिटिश फॉरेस्ट गार्ड ने देखा था। तब यह माना जा रहा था कि यह नर कंकाल उन जापानी सैनिकों के थे जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इस रास्ते से गुजर रहे थे। यह भी कहा जाता था कि यह खोपड़िया कश्मीर के जनरल जोरावर सिंह और उसके सैनिकों के हैं, जो 1841 में तिब्बत के युद्ध से लौट रहे थे और खराब मौसम की चपेट में आ गए।
रूपकुण्ड झील को लेकर धार्मिक मान्यता
हर 12 वर्ष के बाद नौटी गांव के हजारों श्रद्धालु राजजात यात्रा लेकर निकलते हैं। नंदादेवी की प्रतिमा को चांदी की पालकी में बिठाकर रूपकुण्ड झील से आचमन करके वे देवी के पावन मंदिर में दर्शन करते हैं। इस इलाक़े के गांवों में एक प्रचलित लोकगीत गाया जाता है। जिसमें बताया जाता है कि कैसे यहां पूजी जाने वाली नंदा देवी ने एक ‘लोहे जैसा सख़्त तूफ़ान‘ खड़ा किया जिसके कारण झील पार करने वालों की मौत हो गई और वे यहीं झील में समा गए।
झील को लेकर काफी किवदंतियां प्रचलित
रुपकुण्ड झील को लेकर स्थानीय लोगों में काफी किवदंतियां प्रचलित हैं। लोगों का मानना है कि कन्नौज के राजा जसधवल अपनी गर्भवती पत्नी रानी बलाम्पा के साथ यहां नंदा देवी राजजात यात्रा में शामिल होने के लिए आए थे। वहां हर 12 साल नंदा देवी के दर्शन की बड़ी महत्ता थी। कहा जाता है कि राजा ने दिखावे के साथ यात्रा की, जिसमें उसने ढोल आदि का इस्तेमाल किया। लोगों ने ऐसा करने से मना भी किया लेकिन वह नहीं माना जिस वजह से देवी नाराज़ हो गई और भयानक और बड़े-बड़े ओले और बर्फीला तूफ़ान आया। जिसकी वजह से राजा और रानी समेत पूरा जत्था रूपकुंड झील में समा गया। हालांकि इस बात को लेकर पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता है।
नन्दा देवी के नाम पर पड़ा इस झील का नाम
धार्मिक मान्यता के अनुसार जब देवी पार्वती अपने मायके से अपने ससुराल हिमालय को जा रही थी तब उन्हें रास्ते में प्यास लगती है और वह भगवान शिव से पानी की प्यास बुझाने की इच्छा जाहिर करती है। तभी भगवान शिव माता पार्वती की प्यास बुझाने के लिए उसी जगह पर अपने त्रिशूल से एक कुंड का निर्माण कर देते हैं और जब देवी कुंड में पानी पीने जाती है तब देवी के पानी में पड़ते सुन्दर प्रतिबिम्ब को देखते हुए शिव जी इस कुंड को रूपकुंड नाम देते हैं। आज भी स्थानीय लोग द्वारा जब भी नन्दा देवी राजजात यात्रा की जाती है तो यात्रा रूपकुंड पर अवश्य रूकती है। वहीं भारत की दूसरी सबसे ऊंची चोटी नंदा देवी का नाम भी इन्हीं देवी के नाम पर रखा गया है।
सदियों से दफन नर-कंकालों का रहस्य
तकरीबन आधी सदी से मानवविज्ञानी और वैज्ञानिक इन कंकालों का शोध कर रहे हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि 7 से 10 शताब्दी के बीच भारतीय मूल के लोग अलग-अलग घटनाओं में रूपकुंड में मारे गए। लेकिन अब भी यह स्पष्ट नहीं है कि की ये लोग रूपकुंड झील क्यों आए थे और उनकी मौत कैसे हुई। हालांकि कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि झील के पास मिले नर कंकाल लगभग 9वीं सदी के आसपास के उन भारतीय आदिवासियों के हैं जो ओले की आंधी में मारे गए थे।
सच अभी भी भविष्य के आगोश में
रुपकुण्ड झील कितनी रोचक है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि साल के ज़्यादातर वक़्त तक इस झील का पानी जमा रहता है। लेकिन मौसम के हिसाब से यह झील आकार में घटती-बढ़ती रहती है। जब झील पर जमी बर्फ़ पिघल जाती है तब ये इंसानी कंकाल दिखाई देने लगते हैं। गुज़री आधी सदी से ज्यादा वर्षों से वैज्ञानिकों ने इस झील में पड़े कंकालों का अध्ययन किया है और कई अनसुलझी पहेलियों को सुलझाने की कोशिश की है। लेकिन सच अभी भी भविष्य के आगोश में है।